लोगों की राय

विविध >> यह संभव है

यह संभव है

किरण बेदी

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :334
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3622
आईएसबीएन :81-288-0466-9

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

327 पाठक हैं

विश्व की सबसे बड़ी जेलों में से एक का कायाकल्प...

Yah sambhav hai

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

तिहाड़ जेल के अंदर मैंने जो कुछ भी देखा उसे मैंने उस मानवीय संवेदना से बाँध लिया जो मेरे फर्ज़ के लिए जरूरी थी। मैं वहाँ सुधार लाने गई थी न की इल्जाम लगाने। समस्या गंभीर थी। समझने में सुधार में मुझे कुछ महीने लगे। चाहे किसी को कितनी भी जल्दी क्यों न हो ऐसे संस्थानों की परतें उघाड़ने में वक्त लगता है।
तिहाड़ जेल ने मेरे धैर्य की बेइंतहा परीक्षा ली पर  आखिर में उसके निवासियों के मन में जगह बनाने में कामयाब हो गई। अब वही इमारत तिहाड़ आश्रम कहलाती है।

प्राक्कथन


किसी भी व्यक्ति के लिए अपने उत्तररदायित्वों का निर्वाहन जरूरी है, लेकिन उससे भी आगे बढ़कर अपने कार्यों के जरिए प्राणीमात्र की सेवा करने वाले लोग विशिष्ट होते हैं। किरन बेदी इन्हीं में से एक हैं। एक महिला तथा एक अधिकारी के रूप में सामाजिक मुद्दों चाहे व नशीली दवाओं पर नियंत्रण का मामला हो या तिहाड़ जेल प्रशासन में सुधार लाने का-के प्रति उनकी संवेदनशीलता, चिंता तथा उन्हें पूरा करने की वचनबद्धता ने उन्हें असाधारण स्थान दिलाया है।

मैं व्यक्तिगत तौर पर पूरी गंभीरता तथा दृढ़ता के साथ कैदियों के सुधार की आवश्यकता को महसूस करता हूँ क्योंकि वे भी हमारे समाज का एक अंग हैं। दुर्भाग्यवश समाज, खासतौर से कारागार प्रशासन उनके साथ अछूतों जैसा व्यवहार करता है। अतः ऐसे गुमराह लोगों को अपने दयालुतापूर्ण व्यवहार, सभ्य वातावरण, ध्यान, शिक्षा तथा बेहतर नागरिक सुविधाएं प्रदान कर उन्हें समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए किरण बेदी द्वारा किए गए अनुपम प्रयास की मैं सराहना करता हूँ।
मुझे विश्वास है कि किरण बेदी की यह पुस्तक पाठकों को प्रेरणा देगी तथा जो लोग मानवता के कल्याण के लिए अपने अधिकारों को औजार के रूप में इस्तेमाल करना चाहते हैं, उनके लिए उदाहरण प्रस्तुत करेगी।

दलाई लामा

अपनी बात


कुछ कार्य भाग्यवश होते हैं, चाहे हम माने न मानें। परन्तु मैं यह अवश्य मानती हूँ कि प्रस्तुत ईश्वर की किसी विशाल योजना का हिस्सा हैं। मैंने कभी नहीं चाहा था कि मैं महानिरीक्षक बनूँ। महानिरीक्षक बनने की मेरी इच्छा की तो बात छोड़िए, ऐसा करने से पहले मुझसे पूछा तक नहीं गया। इस पद पर आने से पहले मुझे अनिवार्यतः प्रतीक्षारत रखा गया। पूर्वोत्तर भारत के मिजोरम राज्य में उपमहानिरीक्षक पद पर अपना निर्धारित  कार्यालय पूरा करने के बावजूद मुझे नई नियुक्त के लिए नौ महीने तक इन्तजार करना पड़ा। भारत सरकार के गृह मंत्रालय में मेरे बारे में निर्णय करने के लिए भरपूर समय लिया। इस दौरान मैं सवेतन प्रतीक्षार्थी रही। मुझे पता चला कि जब लेखाकार कार्यालय ने संबद्ध विभाग से कहा कि अनिश्चितकाल तक प्रतीक्षा करने के लिए वेतन नहीं दिया जा सकता तो अचानक मुझे नियुक्त कर दिया गया।

दिल्ली में महानिरीक्षक (जेल) का पद कई महीनों से खाली पड़ा था। किसी ने भी वहां नियुक्त होने में रुची नहीं दिखाई और जिसे भी नियुक्त किया गया, उसी ने जेल से दूर रहने का इंतजाम कर लिया। नियमानुसार मुझे दिल्ली पुलिस में ही वापस जाना चाहिए था, लेकिन वहाँ जमें हुए कुछ घाघ अधिकारियों को यह मंजूर नहीं था और न ही उन्होंने मेरे लिए जगह बनाई। मुझे ‘तैनात’ करने के लिए पूरी ताकर लगा दी गई और जेल को मेरे लिए उपयुक्त मानकर मुझे  वहां धकेल दिया गया। पुलिस में जेल महानिरीक्षक के पद के बारे में आम धारणा हैं कि यह एक महत्त्वहीन पद है और इस पद पर नियुक्तियां सजा के तौर पर की जाती हैं, उससे अलग हटकर मत सोचो।

इसी दौरान मैं अपने एक सहयोगी से मिली। मैंने देखा कि वह एक हालनुमा विशाल कक्ष में शीशे की मेज के पीछे एक ऊँची कुर्सी पर प्रसन्न मुद्रा में विराजमान हैं। वह जाहिराना तौर पर खान-पान में लगे हुए थे। उन्होंने मुझसे कहा, ‘किरण ! कहां जा रही हो तुम ? क्या करोगी तुम वहाँ जाकर ? वहाँ कुछ भी तो काम नहीं है।’ मैंने कहा ?’ वह बोले, कई साल पहले मैं महानिरीक्षक (जेल) था। मेरे पास दिन भर में केवल दो फाइलें आती थीं। अतः मैं उन्हें अपने घर मँगवाकर ही निपटा दिया करता था या फिर मेरे पास जो अतिरिक्त प्रभार था, उसे देखता था। इसलिए मैं चाहूँगा कि तुम वहां से जल्दी निकल आओ। मैं समझ गई कि वह किस जगह गलती पर थे परन्तु मैंने उन्हें यह बात नहीं बताई। मैंने महसूस किया कि वह इतनी ऊंची जगह बैठ गए हैं कि यहाँ से हजारों इंसान तिल-तिलकर बीतती जिन्दगी छोटी जगह दिखाई पड़ती है।
 
जेल में मेरी नियुक्त को लेकर मेरा परिवार भी चिंतित था। चूंकी मेरा परिवार कुछ खास मुददों पर अड़ियल रवैये से परिचित था। अतः जेल में जिस प्रकार के सामाजिक तत्त्व होते हैं, उसके प्रति मेरे व्यवहार और उसके नतीजों को लेकर उनका आशंकित होना स्वाभाविक था। मेरा अतीत मेरा वर्तमान बना और मेरा वर्तमान खुद एक खुली किताब था।
अपने अंतर्मन की गहराइयों में मैंने कि भाग्य मुझे राह दिखा रहा है। मैं देख रही थी कि मैं, सही जगह पर जा रही हूँ। ऐसी जगह, जहाँ अपने अनुभवों की सारी पूँजी लगाकर सामूहिक तथा संशोधित सुधार कर सकूँ।

मेरी नियुक्त के आदेश मुझे बृहस्पतिवार की शाम को मिले जिसमें कहा गया था कि मुझे तत्काल प्रभाव से महानिरीक्षक (जेल) के पद पर नियुक्त किया जाता है। नियुक्ति पत्रों में इस बात का कहीं कोई जिक्र नहीं किया था कि मेरी नियुक्ति कितनी अवधि के लिए की गई थी। नियुक्ति पत्र मिलने के अगले ही दिन शुक्रवार को अपना पदभार ग्रहण कर लिया। इस तरह अब मैं जेल के 7200 कैदियों की अधिकृत संरक्षक’ बन गई।
इस नियुक्ति में कोई बुनियादी फर्क नहीं था। अपनी 21 वर्षों की पुलिस सेवा के पश्चात् मैंने इसे महसूस किया। मैंने उन वर्षों को याद किया जब लगभग हर समय मेरे अधीनस्थ क्षेत्र की पुलिस किसी न किसी मुजरिम को पकड़कर लाती थी। मैंने अपने अधीनस्थ पुलिस कर्मियों को पकड़े गये मुजरिम से कुछ सवाल पूछने की अनिवार्यता हिदायत दे रखी थी, इसका उद्देश्य मुजरिम को सुधारने तथा भविष्य में अपराध करने की प्रवृति से बाज आने के लिए उसकी मंशा जानना था अनिवार्य रूप से जो सवाल पूछे जाते थे, उनमें से कुछ निम्न थेः

1 उसने अपराध क्यों किया ?
2. वे कौन-सी परिस्थितियां थीं जिसने उसे अपराध करने के लिए मजबूर किया ?
3. अपराध करने के पीछे मनोवैज्ञानिक, सामाजिक या आर्थिक कौन-सा कारण था ?
4. इसके लिए उसके परिजनों मित्रों ने उसे कैसे प्रभावित किया ?
5. क्या पुलिस के पास उसके किसी छोटे-मोटे अपराध की जानकारी थी ? यह हमारे विश्लेषण के लिए थी कि हम उसे रोक पाने में विफल क्यों रहे। 6. हिरासत से छूटने के बाद उसका क्या करने का इरादा है ?
7 क्या पुलिस के लिए उसकी सहायता कर पाना मुमकिन था ताकि जुर्म-जेल-जमानत-जुर्म-जेल-जमानत के चक्र को तोड़ा जा सके।

विश्लेषण की इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप हम अनेक अपराधियों को सुधारने और अपराध रोकने में सामूहिक रूप से सफल हुए। लगभग हर मामले में उल्लेखनीय परिणाम सामने आया। उत्तरी दिल्ली की पुलिस उपायुक्त के रूप में मेरे कार्यालय के दौरान थानों में स्थापित नशामुक्ति केन्द्रों के अपेक्षित परिणाम सामने आए। यह कार्यक्रम उन लोगों को सुधारने के लिए चलाया गया जो आहिस्ता-अहिस्ता चोरी करने या हिंसक व्यवहार करने की ओर अग्रसर हो रहे थे। मेरे उसी कार्यालय के दौरान इसे संस्थागत रूप दिया गया और आज ‘नवज्योति’ के नाम से मशहूर इस संस्था को संयुक्त राष्ट्र की ओर से पर्यवेक्षक का दर्जा हासिल है। अब मैं तिहाड़ जेल की महानिरीक्षक थी जहां ऐसी कुरीतियों की बाढ़ थी। मैं जेल के बाहर जेल की आंतरिक स्थिति सुधारने के लिए संघर्ष कर रही थी और आशा करती थी कि जेल के अंदर भी ऐसा ही सोच हो।

मैंने प्रयोग किया और देखा अगर व्यापक पैमाने पर निःस्वार्थ भाव से अपनी चिंताओं को बांट लिया जाय तो निःसंदेह यह सबको छूती हैं चाहे वह कितना ही कठोर क्यों न हो, बुरे-से-बुरे आदमी पर भी असर होता है। हमें अपनी नेकनीयती के चलते अनेक अपराधियों को सुधारकर विनम्र बनाने तथा उन्हें पुनर्वासित करने का अवसर प्रदान किया। मेरी इच्छा थी कि मैं लोंगो के बुरे वक्त में उन तक पहुंचू, उनकी जरूरतों को समझू, उनके लिए ऐसा माहौल तैयार करूं जहाँ वे अपने अंदर झांककर देखें और बिना किसी से कहे स्वयं को सुधारने की कोशिश करें।
मुझे कानून तोड़ने वालों के बीच रहने और उनसे निपटने का अनुभव तो था लेकिन उनके रहन-सहन तथा उनकी घरेलू जिन्दगी का कोई खास तजुर्बा नहीं था। एक क्षण भी गवाँये बगैर मेरे लिए यह सब सीखना जरूरी था और यह किताब पढ़ते हुए आगे चलकर आप यह जान पाएँगे कि किस प्रकार एक जेल को सुधार गृह में तबदील करने के लिए बहुआयामी तथा तत्कालिक कदम उठाए गए।

पुस्तक के अगले अध्यायों में आप देखेंगे कि मैंने जेल में वहां के तत्कालीन तंत्र और कैदियों को किस हालत में देखा। मैंने देखा कि कहां क्या गलत है, किस हद तक गलत है और इस गलती की वास्तविक वजह क्या है। इस सबके लिए हमें क्या करना चाहिए था और हम इससे कैसे निपट सकते थे ? हमारे लक्ष्य क्या थे और अंततः हम कहां पहुंचे ?
इस कार्य के लिए प्रामाणिक दस्तावेजों का होना बहुत जरूरी था। कागजातों-दस्सावेजों को संभालकर रखने की मेरी आदत इसका आधार बनी। मैं कागज के छोटे-छोटे टुक़ड़े और मिनट-दर-मिनट की कार्यवाही को बड़ी सावधानी से एक दस्तावेज के रूप में सहेजकर रखती जाती थी।  समीक्षाओं के दौरान वे काम आए। मैंने अपने जानकार लोगों, परिचितों, कर्मचारियों यहां तक कि जेल से मुक्त हुए लोगों तक पर अपना ध्यान केन्द्रित रखा। उनमें से जहाँ तक हांगकांग निवासी 30 वर्षीय डेविट मिंग नामक युवक जो कि जेल में ध्यान कार्यक्रम का संचालन करता था, वह भी जेल से छूटने के बाद मेरे घर टैंट में कुछ दिन तक रहा।

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai